भगवान् कबीर साहेब चारों युगों में आते है

भगवान् कबीर का चारो युगों में आना


जिस किसी भी व्यक्ति को तत्वज्ञान नहीं है, उस व्यक्ति की आत्मा को हमेशा संदेह रहता है कि कबीर साहेब (जिन्हे हम भगवान कहते हैं)
  • एक बुनकर के रूप में कैसे जन्म ले सकते हैं?
  • वो वेदो के पूर्ण परमात्मा कविर्देव कैसे हो सकते हैं?
भगवान कबीर का प्रकट दिवस (जन्म) विकर्मी सम्वत 1455 के वर्ष 1398 के ज्येष्ठ माह यानी मई और जून की पूर्णिमा की प्रातःकाल को कमल के फूल पर काशी शहर के लहर तारा तालाब में हुआ था। इनका लालन पालन बुनकर (धानक) नीरू और और नीमा ने किया था।
जब भी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) के विषय में लिखा जाता है तो हम आपसे हमेशा यही अनुरोध करते हैं कि कविर्देव वेदों के ज्ञान से भी पहले सतलोक में उपस्थित थे। यह बिलकुल सच है कि वे खुद चारो युगो में ज्ञान देने के लिए स्वयं ही धरती पर अवतार के रूप में जन्म लेते हैं।
इन्हे चारों युगों में अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे –
  • सतयुग में – सतसुकृत
  • त्रेता युग में – मुनिंदर
  • द्वापर युग में -करुणामय
  • कलयुग में-  कविर्देव (भगवान कबीर)
के रूप में आते हैं। इन्होने और भी कई रूपों में अवतार लिया और अपनी लीला या ज्ञान रूपी कार्य को पूरा करने के पश्चात् गायब हो जाते हैं। इस समय भगवान् कबीर जो अपनी लीला को दिखने के लिए स्वयं प्रकट हुए हैं कोई भी नहीं पहचान रहा है भगवान कबीर को ना पहचानने का एक ही मुख्य कारण है की जितने भी पहुंचे या तथाकथित महर्षि हैं उन्होंने भगवान को निराकार बताया है की भगवान का कोई आकार नहीं है क्योंकि  वो सब में निहित है।  जबकि भगवान कबीर, भगवान के रूप में प्रकट हुए हैं। ऐसा इसलिए है की भगवान कबीर ही मात्र एक ऐसे भगवान हैं जिनके पास अपना शरीर है मेरे कहने का मतलब है जिसे हम देख सकते हैं। मगर भगवान् कबीर का शरीर उन पांच तत्वों से मिलकर नहीं बना है बल्कि इनका शरीर प्रकाश के एक तत्व से बना हुआ है।  भगवान जब और जहाँ चाहते हैं प्रकट हो जाते हैं।  ये कभी भी माँ के गर्भ से जन्म नहीं लेते हैं क्योकि यही सभी के उत्त्पत्तिकर्ता हैं।

भगवान कबीर (कविर्देव) का सतयुग में  सतसुख के नाम से अवतार लेना।

सतयुग में गुरुड़ और श्री ब्रह्माजी ने भगवान कबीर से सच्चा ज्ञान प्राप्त किया था।  भगवान कबीर जी ने महान संत श्री मनु जी को तत्वज्ञान देने की भरपूर कोशिश की लेकिन ऋषि मनु भगवान के ज्ञान को सच नहीं मानते थे बल्कि वे ब्रह्मा जी और जो भी ज्ञान और  वेदों की  शिक्षा उन्होंने खुद ली थी बस उस पर ही अटल रहे।  और तो और ऋषि मनु परमेश्वर भगवान सतसुख को अपमानित भी करने लगे और कहते थे की आप ज्ञान नहीं अज्ञान बाँट रहे हैं। ऋषि मनु ने तो परमेश्वर कबीर को यानी सतसुख को वामदेव की उपाधि दे दी और इसी नाम से पुकारने लगे। जिसका मतलब था की विपरीत देव यानी अज्ञानी जो सही ज्ञान प्रदान न करता हो।
सत सुकृत जी को वामदेव के नाम से पुकारा जाने लगा
सतयुग में कविर्देव जी, सत्सुख के नाम ऋषियों के और उपासकों को वास्तविक ज्ञान देने आये थे लेकिन बदले में उन्हें उपहास झेलना पड़ा और वामदेव के नाम से भी सम्बोधित होना पड़ा।  सभी ऋषि बिलकुल भी मानाने को तैयार नहीं थे की कविर्देव जी वास्तविक ज्ञान देने के लिए कुशल हैं और वो उन्हें वास्तिविक ज्ञान प्रदान करना चाहते हैं इसके विपरीत वे उनके वामदेव के नाम से पुकारने लगे और उनका उपहास भी करने लगे।
यही कारण रहा कि वामदेव ऋषि को यजुर्वेद के वास्तविक ज्ञान का ज्ञाता माना जाता है या ये भी कह सकते हैं की उन्होंने ने ही सही तरीके से ज्ञान का अनुसरण किया और दूसरों को की करवाया।  इसका उल्लेख आप यजुर्वेद के विशेष 12 मंत्र 4 में देख सकते हैं जो की आज भी यजुर्वेद जैसे वेद में अभी भी वर्णित है।
पवित्र वेदों को पूर्णतया समझने के लिए कृपया अच्छे से सोचें –
आपको इसका उदाहरण देते हैं जो की यजुर्वेद में निहित है। यजुर्वेद को एक पवित्र पुस्तक माना जाता है और वास्तव मैं भी ऐसा ही है।
जिस प्रकार यजुह और यजुम दोनों संस्कृत के शब्द हैं और ये यजुर्वेद कीओर इशारा करते हैं ठीक उसी प्रकार कविर्देव को हम अलग अलग भाषाओँ में कबीर भगवान्, कबीर परमेष्वर, या कबीर साहब के सभी नाम कविर्देव की और इशारा करके हमें समझने या बताने की कोशिश करते हैं की ये कबीर भगवान् के ही नाम है जो तत्वदर्शी और वास्तविक ज्ञान के मार्गदर्शक है। बहुत से भक्त या व्यक्ति है जो हमेशा शक करते हैं या ये जानना चाहते हैं की आप कवि शब्द को कबीर में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? व्याकरण में में कभी अपने देखा या पड़ा हो तो कवि को किस प्रकार की संज्ञा दी गई है? कवि को सर्वज्ञ की संज्ञा दी गई है जिसका अर्थ है सब जगह या जिसे पूर्ण ज्ञान हो।
संत रामपाल जी का मानना है की हर शब्द का कोई न कोई अर्थ होता है। अगर हम व्याकरण की बात करते हैं तो भाषा का निर्माण कब हुआ मान लेते हैं की भाषा  पहले बनी है लेकिन यह भी उतना ही सत्य है की वेदो में  भगवान द्वारा भाषण पहले दिया गया है और उस भाषण को ऋषियों ने बाद में वेदो में इसे वर्णित करने का काम किया है।  ये भी हो सकता है की व्याकरण दोषपूर्ण हो।  अगर हम वेदो के अनुसार व्याकरण का अधययन करते हैं तो व्याकरण असंगत और विरोधाभासी है। क्योकि भगवान के दिए हुए भाषण या ज्ञान को वेदो में मन्त्रों और दोहो के माधयम से समझाया गया है।  अगर मैं आपको पलवल शहर का उदाहरण देकर समझाऊं तो उस समय लोग पलवल को परवार के नाम से जानते थे। अगर इस पर बहस हो जाये की पलवल को परवार कैसे कहा गया है यह ठीक उसी प्रकार मानाने योग्य होगा जैसे की कबीर को कबीर कहना।
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Milan Tomic

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